इस का जवाब मुझे मालूम है, मेरे
उर्दू ब्लॉग पर अकसर दूसरे उर्दू ब्लॉगर्स मुझ से पूछते रहते हैं कि आखिर इस्लाम के खिलाफ तुम्हारे विचार ऐसे क्यों हैं? कई बार मैं ने अपने उर्दू ब्लॉग पर मुखतलिफ तरीके से जवाब लिखा था और वही लेख यहां अपने इस हिन्दी ब्लॉग पर पोस्ट कर रहा हूं।
मुझे मशहूर होना बिलकुल पसंद नहीं, मैं हमेशा सबसे अलग रहता हूं क्योंकि मेरे विचार दूसरों से बिलकुल नहीं मिलते। मैं ने दिल की भडास निकालने यों ही अपने उर्दू ब्लॉग पर लिखना शूरू किया था और उर्दू पढने वालों ने मुझे खूब गालियों के साथ
टिप्पणियाँ लिखे और मुझे काफिर (हिन्दू) भी कह दिया। चंद ऐसे भी उर्दू ब्लॉगर्स थे जो मेरे विचारों को समझा और मेरे लेख को बिलकुल सही कहा क्योंकि बहुत सारे पढे लिखे लोग समझ चुके हैं के मज़हब (इस्लाम) किया है।
मैं ने अपने उर्दू ब्लॉग पर कभी इस्लाम के खिलाफ कुछ नहीं लिखा सिर्फ मज़हब से अपनी बेज़ारगी लिखा है और मुझे किसी भी मज़हब के खिलाफ लिखने का हक नहीं। मैं सभी धर्मों की इज़्ज़त करता हूं मगर आज़ाद खयाल इनसान हूं, मुझे अपने देश का कलचर बहुत प्यारा है कहीं हिन्दू-मुसलिम फसाद है तो वहीं आपस में प्यार और दोसती भी है, ऐसा कलचर भारत के सिवा दुनिया में दूसरी जगा कहीं देखने को नहीं मिलता।
मेरे मां-बाप और उनका पूरा खानदान सभी बंगलौर के शहरी हैं मगर हैं पक्के इसलामी, सभा-शाम नमाज़ें, कुरान और चौबीस घंटे यों ही इस्लाम की पाबंदी करते गुज़ार देते हैं। माता-पिता दोनों हमेशा मेरे लिये परेशान कि उनका एक बेटा जिसके दिल में खुदा का ज़रा भी खौफ नहीं, नमाज़-रोज़ा कि पाबंदी नहीं करता - दिन में एक काम भी इसलामी नहीं करता। आज भी मेरी मां फोन पर पूछ लेती हैं के वहां रोज़ाना नमाज़ पढता है कि नहीं? वो मेरी मां है मैं उसे नाराज़ नहीं करना चाहता भले वो पक्की मुसलमान औरत है, उसे नाराज़ किये बगेर मैं हमेशा जूठ बोलता हूं "हां अम्मी, तुम फिक्र न करो मैं रोज़ाना पाबंदी से नमाज़ पढ लेता हूं।"
मैं अपने आप को मुसलमान नहीं मानता मगर अपने मां-बाप की बहुत इज़्ज़त करता हूं, सिर्फ और सिर्फ उनको खुश करने के लिये उनके सामने मुस्लमान होने का नाटक करता हूं वरना मुझे अपने आपको मुसलमान कहते होवे बहुत गुस्सा आता है। मैं एक आम इनसान हूं, मेरे दिल में वही है जो दूसरों में हैः जूठ, फरेब, ईमानदारी, बे ईमानी, अच्छी और बुरी आदतें, कभी शरीफ और कभी कमीना बन जाता हूं, कभी किसी की मदद करता हूं और कभी नहीं - ये बातें तो हर इनसान में कॉम्मन हैं। एक दिन अब्बा ने अम्मी से गुस्से में आकर पूछाः किया शुऐब हमारा ही बच्चा है? तो वो हमारे तरह मुसलमान क्यों नहीं? कयामत के दिन अल्लाह मुझ से पूछे गा के तेरे एक बेटे को मुसलमान क्यों नहीं बनाया, तो मैं किया जवाब दूँ? पहले तो अब्बा और अम्मी ने मुझे प्यार से मनाया फिर खूब मारा-पीटा के हमारे तरह पक्का मुसलमान बने।
यहां दुबई में दुनिया भर के देशों के लोग रहते हैं, हैं तो ज़ियादा तर मुसलमान। मुझे शुरू से मुसलमान बन्ना पसंद नहीं और यहां आकर सभी लोगों को करीब से देखने और उनके साथ रहने के बाद अब तो इस्लाम से और बेज़ारी होने लगी है। मैं ये हरगिज़ नहीं कहता के इस्लाम गलत है, इसलाम तो अपनी जगा ठीक है मैं मुसलमान और उनके विचारों की बात कर रहा हूं।
मुझे बहुत खुशी होती है के मेरा कोई मज़हब नहीं मैं आज़ाद हूं, अपनी मरज़ी का राजा मगर मैं देश के कानून का पालन करता हूं, दूसरे सभी धर्मों को इज़्ज़त की नज़रों से देखता हूं। मूझ में धर्म नहीं तो इस का मतलब ये नहीं के मैं जाहिल या आतंकवादी हूं। मैं तो सीधा सादा इनसान हूं, मेरा किसी से कुछ लेना-देना नहीं, मैं अपने आप में हमेशा खुश रहता हूं। मुझे धर्म इस लिये पसंद नहीं क्योंकि ये कोई आसमान से नहीं उतरा बलके मेरा यकीन है ये धर्म पूराने ज़माने के किसी ने अपने कुंबे को एक जुट करने के लिये ग्रोह बनाऐ फिर उस को मानने वालों ने आगे चल कर धर्म की शकल अपनाली। मेरी नज़र में सब से अच्छा धर्म इनसानियत है और इस से अच्छा धर्म मेरे नज़दीक दूसरा कोई नहीं।
यही बातें मैं अपने उर्दू ब्लॉग पर लिखा तो पढने वालों ने मुझे खूब बुरा कहा और कहा के मैं अपना नाम बदली करों, मुसलमान से हिन्दू होजाऊं और बहुत कुछ कहा के मैं मुसलिम मुल्क में रहते होवे ऐसी बातें अपने ब्लॉग पर लिखता हूं वो दिन दूर नहीं जब मोलवी लोग तुम्हारे कतल का फतवा (ऐलान) कर देंगे, वगेरा वगेरा। हर एक को अपने दिल की बात कहने की पूरी आज़ादी है, मैं ने अपने उर्दू ब्लॉग पर popup में लिख दिया के "इस ब्लॉग पर सभी लेख अपने ज़ाती विचारों पर है न के किसी दूसरे के दिल को चोट करने के लिये, इस लिये मेहरबानी करके सभी लेख को पढते समे बुरा न मनाये क्योंकि ये मेरी ज़ाती डाईरी है। अगर कुछ बुरा लगे तो क्रपया माफ करें।" मैं ये हरगिज़ नहीं चाहता कि मेरा ब्लॉग दूसरा कोई पढे, ये मेरी आन-लईन डाईरी है पर है तो आन-लईन जिसे हर कोई पढ सकता है, इस लिये मैं ने popup पर लिख छोडा। दुनिया में सिर्फ मैं अकेला ही नहीं मुझ जैसे और भी हैं, मेरे उर्दू लेख पर बहुत सारों ने मुझे बधाई भी दी के तुमहारे बहुत अच्छे विचार हैं, अगर हर कोई तुमहारी तरह धर्म से बाहर आकर देखे तो उसे दुनिया जन्नत दिखाई देती है मगर मज़हबी लोग ऐसा करने को बहुत बडा पाप समझते हैं।
मैं घर जाऊँ तो मां-बाप मेरी शादी किसी ऐसी लडकी से करवा दें गे जो देनदार (पक्की मुसलमान) हो, और मैं उस मासूम लडकी की नज़रों में पापी जिसे खुदा पर ज़ारा भी यकीन नहीं। पता नहीं मेरी हम-खयाल लडकी कहां मेले गी, पर मुझे पूरा यकीन है के मेरे लायक कोई लडकी नहीं है, अगर शादी हो भी गई तो मेरी पत्नी पूरी ज़िनदगी परेशानी में रहे गी के किस क़िस्म के शख्स से मेरी शादी होई जो न हिन्दू है न मुसलमान? खैर मैं तो दुबई में हूं और यहां शादी-वादी की कोई ज़रूरत नहीं, ये है तो मुसलिम मुल्क पर यहां अपने आप को धोका दे सकते हैं के मुझे कोई नहीं देखता पर वहां भारत में कोई बुरा काम करो तो सब याद आजाते हैं भगवान, खुदा, जीस्स, हनुमान, बाबा, पत्नी, ब्च्चे, मां-बाप वगेरा वगेरा और यहां दुबई में कोई किसी का नहीं।
मुझे इस की कोई फिक्र नहीं के मरने के बाद मेरा किया होगा? मैं ने जन्नत देखली है, हां दुनिया मेरे लिये जन्नत है। मुझे बहुत खुशी होती है जब मैं किसी की मदद करता हूं, दूसरों के दुख-सुख में साथ दूँ ऐसा करते होवे मुझे बहुत अच्छा लगता है और जीने में आनंद भी आता है। 16 बरस से लेकर अठारा बरस तक मुखतलिफ अख़बारों में नौकरी किया है मैं ने, तकरीबन पूरे आठ साल तक मैं ने नईट ड्यूटी किया क्योंकि अख़बारों में front page composing रात को होती है और मैं सभी अख़बारों में front page composer के अलावा Add डिज़ईनर भी था। मां को मेरी नईट शिफ्ट बिलकुल पसंद नहीं थी ये मेरी मजबूरी थी क्योंकि दिन में मैं पढाई करता था। यों अख़बारों में काम करते मैं ने अपनी पूरी जवानी मीडिया में गुज़ारदिया और मीडिया में रहते मुझे मज़हब का अच्छा तजरबा भी होवा। मैं छे साल तक बंगलौर के एक उर्दू अखबार में भी काम किया है, वहां मुखतलिफ लोगों के साथ रहते मेरे मन से पूरी तरह मज़हब को निकाल ही दिया। मैं ये नहीं कहूँगा के किया सच है और किया जूठ, पर मैं जैसा भी हूं अपने आप में बिलकुल सही जा रहा हूं। मैं दूसरों को नहीं कहता के आप भी मेरी तरह सोचें क्योंकि मैं जो सोचता हूं उसे लोग गुनाह सम्झते हैं और मैं उसे सही जीवन मानता हूं।
मैं सिर्फ मां-बाप के डर से नमाज़ पढता था, उनको खुश करने के लिये रोज़े भी रखता था पर मेरा मन ये सब करने की इजाज़त नहीं देता। मुसलिम दोसत मेरे विचारों को देखते होवे मुझ से खफा हैं, माता पिता भी मेरे विचारों से परेशान हैं के मरने के बाद उनके बेटे का किया होगा? मां-बाप हमेशा मुझे नसीहत करते नहीं थकते, उनहें शक है के उनके बेटे पर किसी ने जादू किया है। अपने मां बाप से ये कहते होवे मुझे बहुत शर्म आती है के मैं मुसलमान नहीं हूं और न ही मुझे मुसलमान बनना है। ये सुनकर मेरे माता-पिता को बहुत दुख होगा और मैं अपने मां बाप को दुख नहीं देना चाहता, मेरे मां बाप जैसे भी हैं वो अपनी जगा ठीक हैं और मैं कोन हूं? किया हूं? ये मुझे मालूम है के मैं किया हूं - मेरे अंदर इनसानियत है और मैं सिर्फ इनसान हूं।
अमेरिका से एक पाकिसतानी ब्लॉगर लिखते हैं
Why I am Not a “Muslim”